देश की स्वतन्त्रता के पूर्व का विपणन परिदृश्य- 
            स्वतंत्रता के पूर्व रायल कमीशन आन एग्रीकल्चर 1928  की संस्तुतियों के अनुसार कृषकों की उपज की उचित विपणन व्यवस्था स्थापित कर किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाए जाने की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित हुआ। रायल कमीशन द्वारा यह अनुभव किया गया कि तत्कालीन कृषि  विभाग द्वारा कृषि  उपज की पैदावार तथा उसकी गुणवत्ता सुधार में तो प्रगति की गई है, परन्तु बढे हुई कृषि  पैदावार की उचित विपणन व्यवस्था न होने के कारण किसानों को लाभकारी मूल्य नही मिल पा रहा है । इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु तत्कालीन शासकों द्वारा भारत सरकार स्तर पर वर्ष 1935  में, कृषि  उपज की उचित विपणन व्यवस्था स्थापित करने के लिए कृषि  विपणन सलाहकार का पद सृजित किया गया तथा उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रान्त) में भी इसी वर्ष 1935  में कृषि विभाग के अंतर्गत कृषि  निदेशक के अधीन ''कृषि विपणन संगठन'' का गठन किया गया। प्रारम्भ में प्रदेश स्तर पर एक प्रान्तीय विपणन अधिकारी के अधीन तिलहन एवं घी समूह, पशु एवं पशुपालन उत्पाद, अन्न एवं चीनी उत्पाद तथा फल एवं सब्जी उत्पाद की विपणन व्यवस्था के लिए चार पद सहायक विपणन अधिकारी के सृजित करके इन कृषि  उत्पाद समूहों की विपणन व्यवस्था के सुधार के कार्य प्रदेश में प्रारम्भ किए गए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय आर्थिक कठिनाइयों के कारण विपणन संबंधी उक्त कार्यो में शिथिलता आई तथा प्रान्तीय विपणन अधिकारी के अधीन एक पद सहायक विपणन अधिकारी व एक लिपिक के पद को बनाए रखा गया तथा शेष पदों को समाप्त कर दिया गया। 
            
            स्वतन्त्रता के पश्चात् विपणन व्यवस्था व नीति-
            
           स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1953  में देश के प्रान्तों के कृषि  मंत्रियों तथा प्रान्तीय विपणन अधिकारियों का सम्मेलन कृषि  उपज की उचित विपणन व्यवस्था स्थापित करने के विचार से केन्द्र सरकार द्वारा दिल्ली में बुलाया गया। इस सम्मेलन की संस्तुतियों एवं योजना आयोग के निर्देशानुसार उत्तर प्रदेश में मूल विपणन योजना को वर्ष 1957-58  में शासनादेश सं0-4261/12-बी0-123/1955, दिनांकः 02-09-1957  द्वारा कृषि  निदेशक, उत्तर प्रदेश की देखरेख में ''कृषि  विपणन अनुभाग'' के रुप में पुनर्जीवित कर प्रारम्भ किया गया। प्रारम्भ में ''कृषि विपणन अनुभाग'' को निम्नलिखित कार्य सौपें गएः-
            
            
             विपणन विकास-
            कृषि  बाजारों को विनियमित करने की व्यवस्था (मण्ड़ी विनियमन) का कार्य करना, विपणन परिज्ञान सुधार, लाइसेंस युक्त भण्ड़ारागारों की व्यवस्था, माप तौल तथा विपणन सूचना प्रसार सेवा के कार्य करना । विपणन व्यवस्था में सुधार हेतु उक्त कार्य वर्ष 1957-58 से वर्ष 1964  तक ''कृषि  विपणन अनुभाग'' द्वारा कृषि  निदेशक के दिशा-निर्देश में किए गए। वर्ष 1964  में राज्य सरकार द्वारा सभी विभागों के कार्यो की समीक्षा एवं मूल्याकंन कर परीक्षण कराया गया और भण्डारागार का कार्य सहकारिता विभाग को तथा माप तौल का कार्य खाद्य एवं आपूर्ति विभाग को सौप दिए गए । शेष कार्य कृषि विपणन अनुभाग द्वारा किए जाते है ।  
            प्रदेश में मण्डियों का विनियमितीकरण-
            
            बाजार सुधार कार्यो के अन्तर्गत प्रदेश की कृषि  बाजारों की कार्य पद्धतियों का विस्तृत सर्वेक्षण कराया गया और पायी गई किसानों की कठिनाइयों समस्याओं एवं मण्ड़ी में व्याप्त कुरीतियों के निराकरण हेतु कृषि विपणन अनुभाग द्वारा वर्ष 1964  में ''उत्तर प्रदेश कृषि  उत्पादन मण्ड़ी अधिनियम 1964'' विधान मण्ड़ल में प्रस्तुत कर पारित कराया गया। कृषि  विपणन अनुभाग द्वारा कृषि  निदेशक के मार्गदर्शन में उक्त अधिनियम के अधीन प्रदेश की 245  प्रमुख एवं 196  उप मण्ड़ियों का विनियमन करके, किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने का कार्य वर्ष 1973 तक कराया गया। 
            
            
            वर्ष 1973 के जून माह में राज्य सरकार द्वारा ‘‘उ0प्र0 कृषि उत्पादन मण्ड़ी अधिनियम, 1964 तथा  नियमावली 1965’’ में संशोधन करके ‘‘ राज्य कृषि उत्पादन मण्डी परिषद, उ0प्र0’’ का गठन किया गया । संशोधन के अनुसार ‘‘निदेशक’’ का तात्पर्य ‘‘कृषि निदेशक’’ के स्थान पर ‘‘मण्ड़ी निदेशक’’ हो गया और बाजार सुधार कार्यो के अन्तर्गत ‘‘कृषि विपणन अनुभाग’’ द्वारा प्रारम्भ कराया गया  मण्ड़ी विनियमन कार्य, राज्य कृषि उत्पादन मण्ड़ी परिषद को स्थानान्तरित कर दिया गया । 
            
             मण्डी परिषद का गठन-
            जून 1973 में मण्ड़ी परिषद के गठन के पश्चात् मण्ड़ी विनियमन का कार्य मण्ड़ी परिषद द्वारा किया जाने लगा तथा कृषि  निदेशक के अधीन स्थापित ''कृषि विपणन अनुभाग'' द्वारा विपणन परिज्ञान, सर्वेक्षण एवं अनुसंधान तथा विपणन विकास (वर्गीकरण एवं मानक स्थापन) के कार्य किए जाते रहे ।
            
            कृषि विपणन निदेशालय का सृजन- 
            
            
            वर्ष  1976  में राष्ट्रीय कृषि  आयोग 1976  की संस्तुतियों के आधार पर, प्रदेश में  कृषकों की उपज को वैज्ञानिक आधार पर उचित विपणन व्यवस्था स्थापित करने, विपणन कार्य कुशलता में अभिवृद्धि करने तथा कृषि  विपणन संगठन, एवं मण्ड़ी परिषद/मण्ड़ी समितियो के कार्यो में उचित समन्वय स्थापित किए जाने के उद्देश्य से राज्य सरकार के शासनादेश सं0 3306/12-88-133/75,  दिनांक 14-07-76 (छायाप्रति संलग्न) के माध्यम से ''कृषि विपणन अनुभाग'' को कृषि  निदेशालय से पृथक कर स्वंतन्त्र कृषि  विपणन निदेशालय का गठन दिनांकः 15-7-76 को किया गया । पृथक रुप से स्थापित कृषि  विपणन निदेशालय का पदेन कृषि  विपणन निदेशक, मण्ड़ी परिषद के निदेशक को ही नियुक्त किया गया। यह व्यवस्था दिनांक 15/07/76 से सितम्बर, 2001 तक रही तथा सितम्बर, 2001 कृषि विपणन निदेशक का पदेन निदेशक का कार्य भार विशेष सचिव कृषि को सौंप दिया गया। यह व्यव्स्था जुलाई, 2003 तक लागू रही वर्तमान में जुलाई, 2003 से कृषि विपणन निदेशालय के निदेशक के रूप में स्वतंत्र निदेशक की नियुक्ति शासन द्वारा की गई है। 1 जनवरी, 2006 से कृषि विपणन निदेशक का प्रभार मण्डी निदेशक को सौपा गया है। उत्तर प्रदेश शासन के कार्यालय ज्ञाप संख्या 687 अस्सी-2-2005-200(22)/1998, दिनांक  13 जून, 2005 (छायाप्रति संलग्न) द्वारा विभाग का नाम परिवर्तित कर कृषि विपणन एवं कृषि  विदेश व्यापार निदेशालय, उ0प्र0 कर दिया गया है तथा पूर्व निर्धारित कार्यो के अतिरिक्त कृषि उत्पाद के निर्यात को बढावा देने हेतु महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे गये है।